सुबह का सत्र, 9 जनवरी 2024
एक होता है कि वो जीना क्या है जो मैं से मुक्त है, यह अमोघ प्रश्र उठाना। दूसरा है कि यह प्राणपन से चाहना या कामना करना कि मैं से मुक्त जीवन में प्रवेश हो; और जो आप प्राणपन से चाहते हैं तो अस्तित्व उसको आपको दिलाने में जुट जाता है। दूसरी विधि में चूक यह है कि जो मिला ही हुआ है उसका एक खांचा या कल्पना बन जाती है, और वह खुद एक बाधा है।
जब मैं आपको देखता हूं तो आपकी एक छवि दिखती है, वो छवि वैसी ही दिखाई पड़ती है जैसे आप दिखते हैं; पर फिर भी वो छवि आप नहीं हैं। इसीलिए, किसी भी छवि के माध्यम से संबंधित होना एक बाधा है। जैसे आप किसी व्यक्ति को रियर व्यू मिरर में देख रहे हैं, इस तरह किसी को शीशे में देखना और उसको सीधे पीछे मुड़कर देखना, दोनों भिन्न हैं। जब भी हम संबंध में विचार से जुड़ते हैं तो वो ऐसे ही है की आप किसी को शीशे में देख रहे हैं। सीधे देखने में हम आप बिना छवि के भी जुड़ सकते हैं, सदा जुड़े ही हुए हैं।
यदि ये भी कामना है कि मैं से मुक्त होना है, तो इस कामना से ही वो दूर हो जाएगा। पंछी को बिना पंछी शब्द के भी देखा जा सकता है। उसकी एक कल्पना ही एक आधार बन जायेगी जो मैं से मुक्त है।
इसलिए सकारात्मक सोच जो मन या विचार से आती है, उससे एक सम्मोहन पैदा हो जाता है। जब भी आप कुछ चाहते हैं उससे वह आयोजित हो जायेगी, पर फिर वह बिखर भी जाता है।
नेति नेति, यानी जो भी दिखता है वो "ऐसा नहीं ऐसा नहीं", यह ज्यादा कारगर उपाय है।
जब भी हम कुछ चाहते हैं तो अस्तित्व वो हमको देने के लिए तैयार है, पर फिर भी हमारी चाहतें पूरी नहीं होतीं, उसका एक कारण है। चाहत के साथ साथ हमारी विपरीत आकांक्षा भी रहती है जिसकी वजह से वह हमें नहीं मिलता। जैसे किसी से प्रेम मिल जायेगा, ये एक विपरीत आकांक्षा है। अस्तित्व यह समझ नहीं पाएगा, क्योंकि ये संभव नहीं है, प्रेम किसी से मिलता नहीं है, और किसी एक विशेष से ही नहीं मिल सकता है। आप स्वयं ही प्रेम स्वरूप हो। या आप चाहते हैं कि मुझे बहुत पैसा मिल जाए, अब ऐसा तो बहुत लोग चाहते हैं। अस्तित्व इसे कैसे पूरा करेगा, अस्तित्व के लिए पैसे का कोई मोल ही नहीं है।
पर यदि किसी ने प्रेम को जीवन में उतरने का अवसर दिया, तो आपका कुछ नहीं घटता, किसी और का भी कुछ नहीं घटता, बल्कि वह बढ़ता ही है। इसको पूरा करने में अस्तित्व पूरा तत्पर रहेगा। प्रेम में "मैं" के मुमेंटम को सहूलियत मिल गई टूटने की।
जो भी आयोजित होता है वो तो बिखरेगा ही। प्रेम को अवसर देने से अस्तित्व सारी बाधा पोंछ देगा। कहते हैं कि जब जीसस ने कहा कि तेरी मर्जी पूरी हो (thou will be done), जब उनकी मर्जी समाप्त हो गई, तभी वो वास्तव में कहलाए थे ईश्वर की संतान (son of God). जब आप ने अपनी मर्जी पोंछ दी, तभी अज्ञेय आपको अपने हाथ में ले लेता है।
प्रश्र - सहज जागरण अपूर्व है उसे सतत अवसर कैसे दिया जाए?
एक पिता पुत्र लड़की काट रहे थे। पिता ज्यादा लकड़ी काट पा रहा था, क्योंकि जब वो विश्राम करता था तो कुल्हाड़ी पर धार भी बनाता जाता था। यदि आप बहुत मेहनत कर रहे हैं हाथों में छाले भी पड़ गए, ऊर्जा भी व्यय हो रही है, पर फिर भी आप लकड़ी नहीं काट पा रहे हैं, क्योंकि आपकी कुल्हाड़ी में धार तेज नहीं है।
जागरण को अवसर देना यह कोई अभ्यास नहीं है। जब जागरण को अवसर दिया तो उसमें बहुत सजगता चाहिए, जब छूट जाए तो फिर से ऊर्जा इकठ्ठी होगी, और वो फिर सहज घटता है। निर्विकल्प स्वीकार (चॉइसलेस सरेंडर) को अवसर देना श्रेष्ठतम प्रज्ञा है, एक उद्यम है। इसमें जरा भी चूकना नहीं चाहिए, यह निःप्रयास जागरण सजग प्रेम को अवसर देने जैसा है। हृदय और ज्ञान एक साथ हों और साथ ही धैर्य भी आवश्यक है, निर्विकल्प स्वीकार में।
सहज मिले सो दूध है, माँगि मिले सो पानि।
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें ऐंचा-तानि॥
जो चीज बिना माँगे स्वतः मिल जाए, वह दूध के समान है; जो माँगकर मिले, वह पानी के समान और कबीर साहब कहते हैं कि जो चीज जबरदस्ती मिले उसे खून के समान मानो।
अपनी मस्ती से चलिए, कुछ भी जरा सा भी मत बदलिए, यदि कहीं पकड़ है तो पकड़ में ही जागरण को अवसर दीजिए। पकड़े पकड़े वह जागरण क्या है जो मैं नहीं कर रहा हूं? जो होता है उसे सहज होने दीजिए, कोई संकल्प धारण करने की भी जरूरत नहीं है।
प्रश्न - यह सोचकर की रिश्तों में बुद्धि की कोई आवश्यकता नहीं है, एक भय लगता है, तो क्या करा जाए?
एक शतरंज का बहुत बड़ा खिलाड़ी किसी गुरु के पास आया कि मुझे आपसे ध्यान सीखना है। शतरंज का खेल तो दूसरे की चाल के आधार पर खेला जाता है, और इसमें बहुत तीक्ष्ण बुद्धि की आवश्यकता होती है, जो आगे की कई चाल भी सोच करके खेल सके। गुरु ने कहा मैं सीखा तो दूंगा पर एक शर्त है कि तुमको मेरे साथ शतरंज का खेल खेलना होगा, और यदि मैं हार गया तो मैं यह सब आश्रम छोड़ दूंगा और यदि तुम हार गए तो तुम्हें शुरू से सीखना पड़ेगा।
खिलाड़ी ने जब खेलना शुरू किया तो देखा कि गुरु को तो बिल्कुल खेलना नहीं आता, तो उसके अंदर एक करुणा का जन्म हुआ, और वह जान कर खराब चाल चलने लगा ताकि वो हार जाए। गुरु ने जब यह देखा तो उन्होंने खेल वहीं समाप्त कर दिया, और कहा अब इसकी कोई जरूरत नहीं है। खुद को पीछे कर देना, की मेरी जीत महत्वपूर्ण नहीं है, वही ध्यान है। जीवन संबंध तुम्हारे चलाए नहीं चलता है, अपने पूरे प्राणपन से मिटो। आपकी चालों में कोई मूल रस नहीं है, और ना ही चालबाजी से उस पार के लोक की कोई गंध आती है।
साईं सूँ सब होत है, बंदे थै कछु नाहिं।
राई थैं परबत करै, परबत राई माहिं॥
बंदे से कुछ नहीं होता, कितना ध्यान किया उससे कुछ नहीं हुआ। हृदय से कितना मिट सके उसका ही महत्व है। ध्यान रोएं रोएं में प्रवेश कर जाए, प्रेम का झरना बहने लगे। जहां प्रेम या ध्यान की खुशबू होती है वहां, भंवरे खींचे चले आते हैं। यदि किसी को अकारण प्रेम की खुशबू नहीं आती है, तो उसको इलाज की जरूरत है। अकारण प्यासों की जमात जुट जाती है, सारी चालबाजी उस तरफ घूम जाती हैं, जहां प्रेम बैठा है।
काल सिंघाड़े यों खड़ा जाग पियारे मीत।
राम सनेही ना मरे क्यों सोवे निह्न चिंत।।
काल तुम्हारे सिर के पास ही खड़ा है। बिना प्रेम के जीने में बहुत बड़ा खतरा है, तू क्यों निश्चिंत सोया है? जितना जागरण को अवसर दिया, उतना ही काल के ग्रास से बाहर निकल जाओगे।
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।
भावार्थ: कबीर कहते हैं कि अरे जीव! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।
सुख झूठा है, हमें ऐसे ही तैयार किया गया है। सुख तो झूठा है ही, दुख भी झूठा ही है। एक आभासीय मद पैदा हो जाता है कि मैंने खुशी हासिल कर ली, पर वास्तव में क्या हासिल किया है? हर पल तुम मृत्यु के पास जा रहे, वो तुम्हारी खोपड़ी में जो जगत बना हुआ है, वो पल पल काल का ग्रास बनता जा रहा है।
माली आवत देखि के, कलियन करैं पुकार।
फूली-फूली चुनि गई, कालि हमारी बार॥
मृत्यु रूपी माली को आता देखकर अल्पवय जीव कहता है कि जो पुष्पित थे अर्थात् पूर्ण विकसित हो चुके थे, उन्हें काल चुन ले गया। कल हमारी भी बारी आ जाएगी। अन्य पुष्पों की तरह मुझे भी काल कवलित होना पड़ेगा।
समय रहते चेत जानना जरूरी है, जब तक ऊर्जा शेष है। निर्विकल्प स्वीकार की वेदी पर सविकल्प स्वीकार की आहुति दे दें।
जागरण करके भी नहीं मिलता, और बिना किए भी नहीं मिलता, क्योंकि दोनो में ही मैं शामिल हूं। बस जो हो रहा है वो हो रहा है, जब वीणा के तार बिल्कुल ठीक खींचे होते हैं, तभी उसमें संगीत उत्पन्न होता है। जब करना और नहीं करना, उसके ठीक मध्य में स्थिति होती है, तब किसी के बजाने की जरूरत नहीं है। अस्तित्व एक साधी हुई वीणा के जैसे है, हम ही हैं जो कहीं और छिटक गए हैं। हम गीत नहीं बजा सकते हैं, एक निश्चलता में गीत हमारे माध्यम से बजता है।
ना अकर्मण्यता, ना कर्मठता दोनों में ही दोष है। सम्यक या नैश्कर्मयता, यानी नैश्कर्म सिद्धि ही मोक्ष है; यानी अंतर्दृष्टि, राइट इनसाइट, का होना और it is over, यह सत्य है जो मुक्त करता है, ना की आपके द्वारा किया गया कोई अभ्यास। विचार के तल पर तो फिसलन ही फिसलन है, अंतर्दृष्टि सम्यक समाधान है।
जो पहर्या सो फाटिसी, नाँव धर्या सो जाइ।
कबीर सोइ तत्त गहि, जो गुरि दिया बताइ॥
जो भी कपड़ा पहनते हैं वो तो फटता ही है, जो आयोजित है वो बिखरता ही है। जो कुछ भी बुद्धि से जाना जा सकता है, वो सभी कुछ आयोजित है। वही इशारा पकड़िए जो गुरु ने बताया है, असाध्य प्रश्र ही गुरु है, प्रश्न पकड़ में नहीं आयेगा पर जीवन में उतर जायेगा। जिस तरफ सदगुरु या असाध्य प्रश्न इशारा कर दे, वही अमृत है।
______________
Ashu Shinghal
Comments