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Writer's pictureDharmraj

कहल हमार गाँठी बाँधन कबीर उलटबाँसी



कहल हमार गाँठी बाँधो।

 

1) हंसा हो! चित चेतु सवेरा,

इन्ह परपंच क़रल बहुतेरा।

 

पाखंड रूप रच्यो इन तिरगुण,

यहि पाखंड भूला संसारा।

 

घर को ख़सम बधिक भो राजा,

परजा काँधौं करै बिचारा।

 

भक्ति न जानै भक्त कहावै,

तजि अमृत विष कैलिय सारा।

 

आगे बड़े ऐसही भूले,

तिनहूँ न मानल कहा हमारा।

 

कहल हमार गाँठी बाँधो,

निशि वासर हि होहु हुशियारा।

 

ये कलि के गुरु बड़ परपंची,

डारि ठगौरी सब जग मारा।

 

वेद किताब दोय फंद पसारा,

ते फंदे पर आप बिचारा।

 

कह कबीर ते हंस न बिछड़े,

जेहिंमैं मिल्यौ छोड़ावनहारा।

 

2) 5.15 - 13.47, समय रहते चित्त में जाग जाओ।

 

हंसा हो! चित चेतु सवेरा,

इन्ह परपंच क़रल बहुतेरा।

 

हंस मानसरोवर के नजदीक रहता है, और उसके अंदर विवेक है कि वह दूध और पानी को अलग-अलग कर सकता है। इस तरह की कई भ्रामक बातें प्रचलित हैं, हंस के बारे में। कबीर साहेब का हंस से तात्पर्य है कि जब जीवन का प्रवाह उलटी दिशा में लौटने लगता है, तो ऐसी चेतना हंस हो जाती है। जब ऐसी चेतना अपनी पूर्णता को प्राप्त हो जाती है, तो उसे हम परमहंस कहते हैं। चेतना या जीवन जब उस तरफ लौटने लगा, जहां से वो आया है, जो उसका स्रोत है, उसको हंस कहते हैं। वो हंस हैं जिनके जीवन में इतना विवेक फलित हुआ कि वो उस तरफ देखने लगे, जो सच या मूल है।

 

चित्त मतलब मन, बुद्धि, अहंकार; चेत यानी जागना; और सवेरा मतलब अभी सही समय है, अभी कुछ किया जा सकता है। कबीर साहब कहते हैं कि अभी सवेरा है, अभी सूरज डूबा नहीं है, समय रहते ही, चित्त में जाग जाओ। हम आप जो सब कर रहे हैं, जहां फंसे हुए हैं, वह एक झांसा है, और बहुत बार यह झांसा किया जा चुका है। जो भी हम अभी कर रहे हैं, जिसमें हमारी गहन रुचि है, कुछ बनने की, कुछ करने की, कहीं पहुंचने की, नाम कमाने की, यह सब हमने लाखों बार किया है; पर हाथ कुछ नहीं आया है, सिवाय राख के।

 

हम लाखों रूपों में, लाखों तरीके से, अपना सिक्का चलाते रहने का प्रयास करते आए हैं। यदि हम अपने किसी पुराने स्वरूप को भी देखेंगे, तो ऐसे दिखेंगे जैसे किसी गैर को देखते हैं, क्योंकि बहुत अंतराल निर्मित हो जाता है। हमने ये प्रपंच बहुत बार किया है, जब हमने घर, परिवार, समाज, सन्यास, देश, जाती, धर्म, ईश्वर, स्वर्ग, नरक आदि को महत्व दिया है। कम से कम इस बार हम जाग जाएं, जब यह बात सुन रहे हैं।

 

त्रिगुण का भ्रम

 

पाखंड रूप रच्यो इन तिरगुण,

यहि पाखंड भूला संसारा।

 

पाखंड का अर्थ होता है, जो नहीं है उसके जैसा कुछ दिखाना। तमोगुण यानी हम ऐसी चीजों में डूबे हुए हैं, जो और भी बेहोशी बढ़ाती हैं, जैसे नशा करना, दिन रात व्यस्त रहना, बुद्धि विवेक का इस्तेमाल नहीं करना, प्रमाद का गहन होना। रजोगुण गुण यानी सक्रियता, हम कुछ करना, होना, विकास, परिवर्तन लाना चाहते हैं। सतोगुण यानी जब हम शुभ आकांक्षा रखते हैं। सतोगुण में धर्म और नीति में फर्क पड़ जाता है। सतोगुण यानी दान, पुण्य, व्यवहार, आचरण, जो समाज में अच्छा माना जाता है।

 

कबीर साहब इन तीनों को पाखंड कह रहे हैं, अर्थात जब तक कोई करने वाला है, या जब तक करने का आयोजन होता है, तब तक यह सब पाखंड है। केवल वह ही पाखंडी नहीं है जो तमोगुण में है, वह भी पाखंडी है जो सतोगुण में है। जो भी मैं प्रयास करूंगा अच्छा करने का, वह एक आभासीय बात होगी, ना की अच्छाई होगी। अच्छाई का होना तब है, जब वहां कोई करने वाला ना हो, वैसे भी अस्तित्व में सब कुछ अपने आप ही होता है।

 

कोई भी प्रयास या आयोजन नैसर्गिक नहीं हो सकता है। हम फूल को खिलने का अवसर दे सकते हैं, पर कुत्रिम फूल में प्राण नहीं पैदा कर सकते हैं। साहेब कह रहे हैं कि हम जो भी कर सकते हैं वह पाखंड ही है, फिर चाहे वह प्रमाद में किया जाए, चाहे वह सक्रियता में किया जाए, या फिर वह शांत और स्थिर होकर के किया जाए, इस तरह के पाखंडों से पूरा का पूरा संसार भ्रमित है।

 

भक्ति यानी जो अखंड है।

 

घर को ख़सम बधिक भो राजा,

परजा काँधौं करै बिचारा।

 

हम ही अपने तारणहार हैं, यदि हम अपनी सीमा समझ जाएं, कि हमारी बनावट क्या है, तो वही चेतना हंस हो जाती है। पर यदि जो राजा है, जो इस घर का स्वामी है, वही हत्यारा हो जाए, तो प्रजा अपना बचाव कैसे कर पाएगी? यदि समझ ही उल्टी चल रही है, तो विनाश होना निश्चित ही है।

 

भक्ति न जानै भक्त कहावै,

तजि अमृत विष कैलिय सारा।

 

भक्ति इतनी आसान नहीं है, जितनी दिखाई पड़ती है। यदि हमको पता है कि हम भक्त हैं, तो हम सतोगुण का अनुपालन कर रहे हैं। भक्ति का मतलब है, समूल रूप से मैं की सीमा को देख लेना। विभक्त का अर्थ होता है जो बंटा हुआ है जो अलग-अलग है, और भक्त का अर्थ होता है जो बंटा नहीं है, जो अखंड है। यदि मुझे पता है कि मैं भक्त हूं, तो एक भक्ति का एहसास और मैं, ये दो अलग अलग बातें हो गईं। भक्ति यानी वह धरातल जहां पर कोई विभाजन नहीं है।

 

वह कौन है जो भक्ति को समझने चला है? जब मैं का गलना पाया जाता है, तो भक्ति जीवन में अपरोक्ष रूप से उतरती है। भक्ति के नाम पर जीवन में हम बहुत सारा विष घोल देते हैं। यदि भक्ति का कोई संप्रदाय या कोई धर्म बन गया, तो उसमें भक्ति होना संभव ही नहीं है।

 

आगे बड़े ऐसही भूले,

तिनहूँ न मानल कहा हमारा।

 

यदि आपको देखकर के बहुत सारे लोग चल रहे हैं, तो पहले आप सावधान हो जाइए। कहीं ऐसा तो नहीं कि आप खुद ही भटके हुए हैं? यदि आप ही भटके हुए हैं, तो जो भी आप किसी और को बताएंगे वह बात भ्रामक हो जाएगी। इसमें बहुत रस है कि दूसरा नहीं जानता, पर मैं जानता हूं। कबीर साहब ने ज्ञानी लोगों से कहा होगा कि आप सत्य के बारे में या ऐसा कुछ भी मत कहिए जो आप नहीं जानते हैं।

 

अपनी तरफ देखो और जागो।

 

कहल हमार गाँठी बाँधो,

निशि वासर हि होहु हुशियारा।

 

कबीर साहब कहते हैं कि ओ हंसा, यदि अपनी तरफ देखने चले हो, तो मेरा कहा हुआ गांठ बांध लो। यदि सत्य की थोड़ी सी प्यास जगी है, तो मेरा इतना सा कहना मान लो, की रात दिन होशियार रहो। पल भर को भी बेहोशी ना होने पाए, अपनी तरफ देखना एक गहन तप है। मनोरोग वहां से पैदा होता है, जब हम दूसरे की तरफ देखते हैं। जो सच में धार्मिक व्यक्ति है, उसकी एक नजर सर्वदा अपनी तरफ होती है, और वह जागा होता है; ये है ध्यान।

 

दूसरे को देखना और अपने को नहीं देखना बहुत सरल है; पर दूसरे को नहीं देखना और अपनी तरफ दृष्टि रखना बहुत कठिन है। प्रेम की सबसे विराट घटना यही है, जाग करके अपनी तरफ देखना। अध्यात्म यानी जो अपनी तरफ जागा है, और दूसरे की तरफ करुणा से भरा हुआ हो। दूसरे को देखकर के यह समझ आती है की पूरी मनुष्य चेतना इसके अंदर अभी इस रूप में प्रकट हो रही है। अपनी तरफ देखने में तथ्य का दर्शन है, करुणा है, और साथ ही साथ उसमें निदान भी सम्मिलित है।

 

तथ्य को देखने में कठोरता है, पर साथ ही साथ वहां पर निदान और समाधान की भी संभावना है। इससे हमारे अंदर करुणा की क्रांति जन्म ले सकती है, और उसका प्रकाश बाहर फैल सकता है; यह यथार्थ के धरातल पर आध्यात्मिकता का पहला चरण है, पर इसका सिद्धांत बना लेने से कुछ नहीं होगा।

 

सोच विचार एक फंदा है।

 

ये कलि के गुरु बड़ परपंची,

डारि ठगौरी सब जग मारा।

 

सम सामयिक व्यक्ति को बुद्धि नहीं पहचान सकती है, ऐसा व्यक्ति खुद को भी नहीं पहचान पाता है। जो भी यह सिखाया जाता है तीनों गुणों से संबंधित कि यह करना सही या गलत है, यह अच्छा या बुरा है, इसको कबीर साहब प्रपंच कह रहे हैं। शिक्षा एक ही है, कि अपनी बनावट की तरफ देखिए, और उस देखने में ही उसका अवसान है, पाखंड और प्रपंच का वहां पर अंत है।

 

ठग का अर्थ है, दिखाना कुछ और होना कुछ और। हम सत्य तक पहुंचाने का कोई रास्ता नहीं बना सकते हैं, फिर भी देखते हैं कि चारों तरफ सत्य को पाने के रास्ते बने हुए हैं। जो सीखा रहे हैं उनको खुद भी नहीं पता जो वह बता रहे हैं, कि वह सच है या कोई सिद्धांत है।

 

वेद किताब दोय फंद पसारा,

ते फंदे पर आप बिचारा।

 

कोई भी धर्म, जितनी भी बातें सिद्धांत में आ सकती हैं, वह एक फंदा है। जो भी बात हम सत्य के बारे में सोच सकते हैं, वह एक बंधन मात्र है। पेड़ की जो छवि हम अपने अंदर बनाते हैं, वह पेड़ नहीं है। यदि उस छवि को ही हमने सत्य समझ लिया, तो जो वास्तविक पेड़ है, उससे नाता टूट जाता है। सारा सोच विचार, ज्ञान एक फंदा है, जो हमने ही बनाए हैं, और उसमें हम फंस गए हैं।

 

सत्य पहले से ही उपलब्ध है।

 

कह कबीर ते हंस न बिछड़े,

जेहिंमैं मिल्यौ छोड़ावनहारा।

 

वह हंस नहीं बिछड़ते हैं, जिनको छुड़ाने वाला मिल जाता है। हमारे सोच विचार, सूचनाओं, मान्यताओं की वजह से एक भ्रम पैदा हो गया कि हम बिछड़ गए हैं। उसमें वह नष्ट हो जाता है, जिसमें छुड़ाने वाली कीमिया घुल गई है, जिनको वो कला मिल गई है। कबीर साहब एक समझ की तरफ इशारा कर रहे हैं, जो जीवन को उबार देती है।

 

यह बात सत्य के संदर्भ में सही नहीं है कि जो मैं निर्धारित करुंगा, उसी को अमल में लाने से परिणाम आएगा। वास्तव में सत्य तो पहले से ही उपलब्ध है, जानने की घटना बाद में घटती है। पता चलने के बाद उसको लागू नहीं किया गया है, वह कीमिया घट गई उसके बाद उसका पता चला है। हृदय से सुनने मात्र से ही कोई मुक्त हो सकता है, ना कि उसका विश्लेषण करके।

 

कृष्णमूर्ति जी कहते हैं कि यदि हम विश्लेषण में लग जाएंगे, तो जो कहा जा रहा है उसके प्रभाव को हम बाधित कर देते हैं। जो भी सोच समझ करके हम लागू करेंगे, वह हमारी ही समझ का परिणाम होगा। जो कहा जा रहा है, क्या उससे बिना प्रतिक्रिया के हृदय मात्र से सुना जा सकता है?

 

जब हम यह सवाल उठाते हैं कि वह जीवन क्या है जो मेरी भूमिका से मुक्त है, तो इस कीमिया से वह जीवन पहले से ही उपलब्ध पाया जाता है, जहां मेरी कोई भूमिका नहीं है। जिसमें छुड़ाने वाला मिल गया है, ऐसा हंस कभी सत्य से बिछड़ता नहीं है। कबीर साहब यह नहीं कर रहे हैं कि हंस कोई ऐसा उपाय कर रहा है, जिससे कि वह ना बिछड़े। हंस के जीवन में वह कीमिया घुल गई है, जिससे वह सहज उपलब्ध मुक्ति को जान पाया है। कबीर साहेब का संदेश है कि जिनकी चेतना अंतर्गामी हो गई है, तो अभी जितना भी समय बचा है, उसमें जाग लिया जाए।

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