कितनी देर और?
बुद्धि पात्र नहीं है, उपस्थिति पात्र है
हमारी बुद्धि उस खादिम की तरह है, जो कहती है कि खच्चर का खूब ध्यान रखेगी, पर रखती नहीं है। अध्यात्म में हम प्रकट करते हैं कि मैं सब कुछ कर लूंगा, पर करते कुछ नहीं हैं।
जीवन का मर्म समझने के लिए बुद्धि पात्र नहीं है, उपस्थिति पात्र है।
सुनने के साथ-साथ यदि समझना नहीं घटा, तो बाद में भी समझना नहीं घटेगा, क्योंकि सुनना एक जीवंत घटना है। हमारे अंदर दो तल पर जीवन चल रहा है, एक आभासीय जीवन और एक वास्तविक जीवन। आभासीय धरातल पर बहुत समृद्धि हो जाती है, पर जीवन के वास्तविक तल पर खोखलापन इकट्ठा हो जाता है।
सत्य विरोधाभास में ही अभिव्यक्त होता है।
ज्ञान सीमित क्षेत्र में काम कर सकता है, असीमित क्षेत्र में काम नहीं कर सकता और जीवन असीम है। अपनी सीमा दिखना ही अपनी जिम्मेदारी की पराकाष्ठा है। मैं ज्ञात से बना हूं और ज्ञात में ही गति कर सकता हूं, जीवन अज्ञेय है उसमें मैं गति नहीं कर सकता हूं। अपनी पूरी जिम्मेदारी लेने का अर्थ है कि मेरा जो जीवन के क्षेत्र में हस्तक्षेप है उसको पूरा छोड़ देना है।
सभी विरोधाभास सत्य नहीं होते हैं, पर सत्य निश्चित रूप से विरोधाभास में ही अभिव्यक्त होता है। पूर्ण तब तक पूर्ण नहीं है जब तक वह शून्य को भी शामिल नहीं कर लेता है, शून्य तब तक शून्य नहीं है जब तक वह पूर्ण को भी शामिल नहीं कर लेता है। जीवन की पूरी जिम्मेदारी लेना जीवन की पूरी जिम्मेदारी से मुक्त होना है।
बुद्धि की सीमा को यदि देख लिया गया, तो वहां नैसर्गिक जागरण या नूर पाया जाता है। नूर का अर्थ है नैसर्गिक जागरण, यानि सारी शिक्षा नूर में ही तमाम हो जाती है, समाप्त हो जाती है। यदि ठीक से मैं की सीमा देख ली गई, तो जीवन में एक ऐसी जागरूकता पाई जाती है, जिसमें मैं की कोई भूमिका नहीं है। जागरूकता जीवन में जगह नहीं ले रही है, तो इसका अर्थ है की बात सुनी और समझी नहीं गई।
हम देवी की मूर्ति बनाते हैं और बाद में उसको विसर्जित कर देते हैं। यदि बुद्धि में ठीक से समझ लिया गया, तो वही बुद्धि का विसर्जन है। जागरण को यदि सही से जीवन में अवसर दिया है, तो ना तो मुझे इसका पता चलेगा, और ना ही मुझे इसका पता नहीं चलेगा।
नौकरी करते हुए, घर में रहते हुए यदि हम यह सवाल उठाएं के बिना इस बुद्धि के जीवन का धरातल क्या है, तो वहीं पर वह बात उघड़ के आ जाएगी, कहीं किसी पलायन की आवश्यकता नहीं है। जहां पर भी अभी आप हैं, वहीं पर बात सत्यापित हो जाएगी, असंभव प्रश्न इसी तरह से काम करता है।
वह जीना क्या है जिसमें भय और लोभ नहीं है? खुद का वह पढ़ना क्या है जिसमें बुद्धि एक माध्यम नहीं है? खुद का बिना विश्लेषण के अवलोकन क्या है?
ज्ञान जीवन में क्यों नहीं उतरता?
प्रश्न - यह ज्ञान समझ में तो आता है, पर जीवन में क्यों नहीं उतरता?
सोचना बुद्धि के स्तर पर होता है कि जो पहले से इकट्ठी की हुई सूचना है उसके आधार पर भविष्य में उसका कुछ उपयोग करना। समझ का अर्थ है कि जब कुछ सुना जा रहा है, तो साथ-साथ जो बाकी इंद्रियों पर घट रहा है उसके प्रति भी जागरण होना। समझने के लिए, जिस धरातल से आवाज उत्पन्न हो रही है, और जहां भाषा को समझा जा रहा है, उस धरातल के प्रति उपस्थिति होनी चाहिए।
कुछ भी जीवन के धरातल पर उतरने के लिए अभी हमको जीवन के धरातल पर होना पड़ेगा। जीवन में कुछ उतरने के लिए जीवन की उपस्थिति अनिवार्य है। यदि ठीक से सुना भर जाए तो यह बात सुनते-सुनते जीवन में उतरने जैसी है, पूरे जीवन का आमूल रूपांतरण हो सकता है।
ध्यान क्या है?
प्रश्न - वर्तमान में जीना यदि ध्यान नहीं है, तो फिर ध्यान क्या है?
सोचना ध्यान नहीं है, चाहे वह सोचना वर्तमान का ही क्यों ना हो। सोचने का धरातल ही आभासीय है। पानी के बारे में सोचना प्यास नहीं बुझा सकता है। निपट वर्तमान में भी ध्यान का पता चलना, ध्यान नहीं है। मुझे ना पता चलना तो ध्यान नहीं है, मुझे पता चलना भी ध्यान नहीं है, यहां आकर बुद्धि की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है। इस तरह बुद्धि के दोनों वर्तुल को एक साथ बांध दिया गया, और उसे एक तरफ रख दिया गया।
अंतिम जो चीज मुझे बांधती है, वह है, वर्तमान में मुझे ध्यान का पता चलना है, यह भी द्वैत को स्थापित करता है। अज्ञानता तो द्वैत है ही, पता चलना भी द्वैत की बुद्धि प्रक्रिया को ही घोषित करता है। बुद्धि साकार की छवि तो बनाती है ही, वह निराकार की भी छवि बना लेती है। बुद्धि में यह क्षमता ही नहीं है कि वह बिना छवि के कुछ समझ पाए। बुद्धि के क्षेत्र में निराकार भी साकार ही है। जिससे हम मौन या ध्यान समझते हैं, वह मौन या ध्यान का एक विचार मात्र ही है। ध्यान का यदि मुझे पता चल रहा है, तो वह ध्यान का अंतिम विचार ही है, इस अंतर्दृष्टि से जो घटता है, वह ध्यान है।
मेरे भीतर क्या सुन रहा है, यदि उसका उत्तर आ जाता है, तो वह एक विचार है और यदि इसका उत्तर नहीं आता है, तो यह सीधे जीवन में घटित होगा। जीवन में उत्तर आए शब्दों में नहीं, शब्द विचार मात्र हैं।
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