सुबह का सत्र, 24 जनवरी 2024
प्रश्न - जीवन में विरोधाभास क्यों है?
यह विरोधोभास नहीं है, यह विरोधों को पकड़ना है, यह विरोधों का विसर्जन है। एक नट कभी बाईं या कभी दाईं तरफ झुकता है, संतुलन बनाए रखने के लिए। सुक्ष्म बात बुद्धि पकड़ नहीं पाती है, क्योंकि तर्क करने वाला तक ही गिर जाता है।
ना संदेह है या ना श्रद्धा है, और दोनों का अपना उपयोग है। वो जीवन क्या है जो मैं के पार है, इसके उत्तर में यदि मन आया तो संदेह को लाया गया। आत्म अन्वेषण या किसी परेड में चलना लक्ष्य नहीं है। परेड केवल बुद्धि को कमांड फॉलो करना सिखाती है, कि यदि गोली मारने के लिए बोला तो गोली मार दी जाए, वहां बुद्धि ना लगाई जाए। जीवन पर भी बुद्धि की जबरकस्ती की एक कवायद चल रही है।
मैं अबला पिउ पिउ करौं निरगुन मेरा पीव।
सुन्न सनेही गुरू बिनु और न देखौं जीव।।
जब अपनी सीमा देख ली, तो सुन्न या शून्य पात्रता हो सकती है, उपलब्धि नहीं। कोई कीमिया भी सत्य नहीं है, जिसको अवसर दिया है वो ही सत्य है। नाव सत्य नहीं है पर उसके पार उतरना सत्य है, शून्य को भी मत पकड़िए।
सुन्न मरै अजपा मरै, अनहद हू मरि जाए। राम सनेही ना मरै, कहै कबीर समुझाए॥
साधुन के सतसंग तें थरहर काँपै देंह।
कबहुँ भाव कुभाव तें मत मिटि जाय सनेह।।
कबीर साहब एक तरफ कह रहे हैं कि गुरु के बिना कुछ संभव नहीं है, और दूसरी तरफ यह भी कह रहे हैं कि गुरु के सत्संग में यह देह जो है वह थर थर कांपती है। पर यहां पर भी कोई विरोधाभास नहीं है। एक
एक तरफ कबीर साहब रास्ता दिखा रहे हैं और दूसरी तरफ सावधान भी कर रहे हैं।
प्रश्न: आपसे साथ में भय, प्रेम आदि जैसे अनगिनत भाव क्यों उठते हैं?
ऐसा तो होगा ही। मैं किसी छवि में नहीं उतरता, चाहे वो गुरु, मित्र, नेता, शत्रु आदि कुछ भी हो। शत्रु बन जाइए तो अच्छा रहता है, मन कुछ गलती ढूंढ लेता है, ताकि वो मनमाना कर सके। हम जानते हैं कि बुरे व्यक्ति के साथ कैसे डील करना होता है। मन कुछ एजेंडा ढूंढना चाहता है सभी जगह, ताकि अपने जाने पहचाने तरीके से काम कर सके। यहां कोई एजेंडा ही नहीं है। मन कभी दोस्त बनाना चाहता है या प्रेमी, या किसी को गुरु ही बनाना चाहता है। या भगवान ही मान लिया जाए तो उससे और आसानी हो जाएगी। हम अपने जीवन में कुछ भी अंट शंट करते रहें और जो भी परिणाम होगा, वह गुरु या भगवान संभाल लेंगे।
यहां कीमिया आपके सभी भाव के साथ, आपको हमको पोंछने की चल रही है। भाव आते हैं पर फ्रेम नहीं बन पा रहा है। आप अब उजड़ रहे हैं, आप समाप्त हों, तो जो आपके पार है, वो अवसर पाए जीवन में।
प्रश्न: प्रश्न शब्द से हैं तो उत्तर शब्दों में क्यों नहीं आ सकता है?
भूख लगी है तो मां क्या कहेगी, खाना खा लो, या सीधे खाना लाकर के दे देगी। मन केवल ढकोलसा देता है।
एक व्यापारी ने साधु को भोजन कराया, पर साथ में ही सोचा कि कुछ मांग भी क्यों न लूं उनसे। साधु उस व्यक्ति के मन की बात समझ गया। साधु ने कहा कि यह लो शंख, तुम इससे जो भी मांगोगे वह उसका दुगना करके दे देगा। उस व्यक्ति ने कहा कि मुझे दो लाख चाहिए तो शंख ने कहा कि चार लाख ले लो, फिर उस व्यक्ति ने कहा कि मुझे चार लाख चाहिए तो शंकर ने कहा आठ लाख ले लो, पर मिला कुछ नहीं। मन कैसे जीवन को कुछ भी दे सकता है? मन और विचार से ही तो मैं बना हुआ है, वह जीवन में कैसे उतर सकता है?
प्रश्न उठाना वाजिब है पर उत्तर आना वाजिब नहीं है। बच्चे को यदि भूख लगे तो मां सीधे दूध देती है, ये कहती नहीं है कि जाओ और खुद दूध पी लो। एक बहुत छोटे बच्चे में यह क्षमता नहीं है कि वह जाकर के खुद दूध पी सके, उसको तो यह भी नहीं पता कि अपनी भूख कैसे मिटाई जा सकती है। हमको या मैं को तो बिल्कुल भी जीने, प्रेम, या होश का शउर हो ही नहीं सकता है।
जो जीवन में उत्तर घटेगा, उसे ठीक से मांजिये। आप हैं तो प्रेम नहीं हो सकता है, मन को कोई भी समझौता मत करने दीजिए। घटे हुए प्रेम के उत्तर पर हमारा आपका होना ही स्वाहा हो जाए, तभी उत्तर सम्यक रूप से आया।
उत्तर शाब्दिक नहीं हो सकते हैं। रमन महर्षि कहते थे, मैं कौन हूं यदि इस प्रश्न का उत्तर आता है तो आप फेल हैं। जैसे लॉकर में आप कुछ सुरक्षित रखते हैं, इस असंभव प्रश्न की कीमिया को भी बड़ा सहेज कर रखिए।
प्रश्न: कबीर पतिव्रता की बात क्यों करते हैं?
यह भी एक ढंग है आत्म अन्वेषण का।
नाम न रटा तो क्या हुआ, जो अंतर है हेत।
पतिबरता पति को भजै, मुख से नाम न लेत।।
पतिव्रता नाम नहीं लेती है पति का, पर भजती पति को ही है। इसको एक रूपक या निष्ठा के रूप में लीजिए। हम आप नाम तो बहुत लेते हैं, पर निष्ठा बिल्कुल भी नहीं है। थोड़ा सा कुछ गलत हुआ तो भगवान को भी कोसने से नहीं चूकते।
माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं।
मनुवा तो चहुँ दिसि फिरै, यह ते सुमिरन नाहिं।।
कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य हाथ में माला फेरते हुए जीभ से परमात्मा का नाम लेता है, पर उसका मन दसों दिशाओं में भागता है। यह कोई भक्ति नहीं है।
प्रश्न उठाते हैं पर उत्तर नहीं आता, मुंह से नहीं भजना है, उसे जीवन में उतरने देना है।
प्रश्न: आपकी एक छवि तो आवश्यक आधार है, तभी तो हम आपके पास आए हैं?
पासपोर्ट माध्यम है, वो आपको किसी से इंट्रोड्यूस करा सकता है, पर वो कोई आधार नहीं है। वो आपको विदेश में भोजन नहीं करा सकता। छवियां केवल सुविधा के लिए हैं, उससे ज्यादा उनकी कोई भूमिका नहीं है। क्या हम कृष्ण जैसी जिंदगी जी नहीं रहे हैं, या सिर्फ उनके बारे में सूचना इकठ्ठा कर रहे हैं? प्रेम या जीवन में छवि की कोई आवश्यकता नहीं है।
नाम एक संकेत मात्र है, नैसर्गिक जीवित व्यवहार में मन की क्या जरूरत है? विचार क्या जीवन दे सकते हैं? हम हवा शेयर कर रहे हैं, इसमें विचार या छवि का क्या योगदान है? इस मन रूपी एजेंसी का अनाधिकृत अतिक्रमण रुकना ही अध्यात्म है।
हम साथ साथ चलते हुए यहां तक आए हैं, अब यहां आकर के फिसलना अच्छा नहीं होगा, अब आगे बढ़ें अब पीछे नहीं देखें।
प्रश्न: युद्ध के अत्याचार के बाहर कैसे निकला जाए, वहां निर्लिप्त कैसे रह सकते हैं?
हम रिश्तों को बहुत पर्सनल लेते हैं, और खुद को अच्छा दिखाने का प्रयास है। जिसको जैसा संस्कारित किया गया है, वो वैसा ही व्यवहार कर रहे हैं। यदि हम उसपर प्रतिक्रिया कर रहे हैं, तो हम भी उनसे भिन्न नहीं हैं। जो एक सर्जन होता है वो राग द्वेष नहीं करता, वो सही एक्शन करता है। जीवन के सर्जन के रूप में आप क्या छवि बनायेंगे, क्या छवि से राग द्वेष को मिटाया जा सकता है?
जो क्रोध करता है उसको भी बहुत हानि पहुंचती है। जो शिकार कर रहा है उस तक भी बोध को फैलने का अवसर देना होगा, इसके लिए हम आप पूरी तरह से जिम्मेदार हैं। यहां कोई शत्रु थोड़े ही है, उसको पता ही नहीं है किसी छवि के कारण। यदि प्रेम उतरता है, तो वो उसको गलाने में सहयोग करेगा, जो बैर है।
आप क्या सोचते हैं कि प्रेम के पास विवेक नहीं होता? प्रेम की अपनी सटीक प्रज्ञा होती है, वो सीधे एक्शन में उतर सकता है। प्रेम के हाथ में जीवन की बागडोर दे करके तो देखें।
अभी ही मामला खत्म करिए, थोड़ा पुरुषार्थ लाइए, हमेशा समझोता क्यों करते रहते हैं? जीवन में रीढ़ लाइए, ठीक समय पर नहीं कहने की क्षमता लाइए। सारे परिणामों के लिए तैयार रहिए, प्रेम के लिए क्या आप इतना भी नहीं कर सकते हैं? थोड़ा भूखे रहिए, हो सकता है कोई आपको जाने ही नहीं, कोई आपकी प्रशंसा नहीं करे, कोई आपका मजाक बनाए, तो उससे क्या फर्क पड़ता है?
रेत चबाने में और मिठाई खाने में फर्क है कि नहीं? क्या रेत को मिठाई समझा जा रहा है, रेत के पक्ष में क्यों खड़े हैं, जो रेत खाकर जिंदा रह रहा है, तो क्या वो जिंदा है भी?
सिर्फ सत्संग हो, मैं केवल उसके पक्ष में हूं। अकेले चलें पर प्रेम साथ में बंटे, जिम्मेदारी अपनी भरपूर रखिए। कबीर व्यक्ति नहीं हैं इसलिए वो गुरु हैं। हम अंट शंट कर रहे हैं, फिर उसका परिणाम गुरु जाने, ये तो कोई बात नहीं हुई। सीधे जीवन में उतरें, अपने बल पर रहिए और साथ साथ चलिए भी। मैं जैसी कोई चीज नहीं होती है, यह जानना, इस समझ को जीवन में उतरने देना ही सत्संग है।
कबीर संगत साधु की, नित प्रति कीजै जाय।
दुरमति दूर बहावासी, देशी सुमति बताय।।
गुरु कबीर जी कहते हैं कि प्रतिदिन संतों की संगत करो। इससे तुम्हारी दुबुद्धि दूर हो जायेगी और सन्त सुबुद्धि बतला देंगे।
कबीर संगत साधु की, जौ की भूसी खाय।
खीर खांड़ भोजन मिलै, साकत संग न जाय।।
सन्त कबीर जी कहते हैं, सतों की संगत में, जौं की भूसी खाना अच्छा है। खीर और मिष्ठान आदि का भोजन मिले, तो भी साकत (निर्गुरु) के संग मैं नहीं जाना चहिये।
कबीर संगति साधु की, निष्फल कभी न होय।
ऐसी चंदन वासना, नीम न कहसी कोय।।
संतों की संगत कभी निष्फल नहीं होती। मलयगिर (एक पर्वत जहां चंदन बहुत होता है) की सुगंधी उड़कर लगने से नीम भी चन्दन हो जाता है, फिर उसे कभी कोई नीम नहीं कहता।
साधु की संगत करिए, विरोधाभास है तो बुद्धि सही काम कर रही है, बस साथ साथ चलिए।
हम कभी आमने सामने मिलें या ना मिलें, उसका कोई महत्व नहीं है, पर साथ साथ चलें। कोई चाहे कहीं पर भी हो, पर यदि वह इस कीमिया को, होश को अवसर दे रहा है, तो हम वहीं साथ साथ हैं, यही सही मायने में सत्संग है।
आप जो मुझे अर्पित करना चाहते हैं, क्या आप वो किसी अनजाने व्यक्ति को भी अर्पित कर सकते हैं, तभी सही मायने में कृतज्ञता प्रकट है, नहीं तो धोखा है। यहां ऐसा कुछ भी नहीं है जो महिमामय नहीं है, सब कुछ परमात्मा ही है। आप खुद जितना खर्च हो सकते हैं, उतना हो ही जाइए, यह तो बहुत शुभ बात होगी।
______________
Ashu Shinghal
Comments