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Writer's pictureDharmraj

प्रेम का दीप (सुबह का सत्र, 3 जनवरी 2024)

सुबह का सत्र, 3 जनवरी 2024


यह तत वह तत एक है, एक प्रान दुई गात।

अपने जिय से जानिए, मेरे जिय की बात।।


वह या यह जैसा कुछ नहीं होता, तत्व एक ही है, जैसे शरीर दो हैं पर प्राण एक ही है। अपने हृदय से जानिए, मेरे हृदय की बात।


मैं और आप का भेद जब मिट जाता है उसी को प्रेम कहते हैं। तब कोई रहस्य नहीं रह जाता है, जब आप और मैं एक ही हैं।


प्रेम में एक ही बाधा है, और वो है सोच विचार की प्रक्रिया या मैं का एहसास। इस मैं के एहसास की जमीन भी विचार ही है। सोच विचार से कभी भी प्रेम को जाना नहीं जा सकता है। जैसे ही जीवन और संबंध में से आपने अपनी भूमिका समेट ली, तो जो रह गया वही प्रेम है। मेरे पार क्या है वो मैं कभी नहीं जान पाऊंगा, पर वहां पर जागरण अवश्य रहेगा, वहां नींद बाकी नहीं रहती है।


सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल।

कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल॥


अर्थ: कबीर साहब के अनुसार इस संसार में पेड़, पौधे, फल, फुल, मानव या जानवर सब एक ही जगह से आये हैं, और यह भी पता है कि यह सभी फिर से मिट्टी में मिल जायेगा। जब मूल पकड़ लिया, तब और कुछ जानने के लिए रह नहीं जाता है, बाकी सबसे पकड़ छूट जाती है।


वो अंतर्दृष्टि, वो कौशल जिसमें मेरी भूमिका समाप्त हो गई वही मूल है, जो पकड़ में आ गया तो फिर और कुछ जानने या करने के लिए रह नहीं जाता।


जब हम कहते हैं कि मैं तुमको प्रेम करता हूं, तो उसका अर्थ क्या है? वास्तव में मैं आपको बारे में सोच रहा हूं, और उसको प्रेम करना कह रहा हूं। जो वास्तव में प्रेम है उसको मन या बुद्धि नहीं जान सकती है। हम जिसको प्रेम समझते हैं वह प्रेम नहीं है। हमारे प्रेम की परिभाषा में असुरक्षा, भय, स्वार्थ, एक ख्याली जमीन है। जो भी मैं स्वास प्रक्रिया के बारे में जानता, सोचता हूं, जान सकता हूं, या फिर उस पर थोड़ा बहुत नियंत्रण भी कर सकता हूं, पर वो वास्तविक स्वास प्रक्रिया नहीं है। हम जो खाना खाते हैं वह रक्त में कैसे बदलता है, उसके बारे में थोड़ी जानकारी हो सकती है, पर वह जानकारी वह प्रक्रिया नहीं है, जहां वास्तव में खाना रक्त में बदलता है।


जब हम कहते हैं मुझे तुमसे प्रेम है, तो वहां कौनसी घटना घट रही है? जब आप प्रेम करते हैं, तो किस संस्था से कुछ करने जा रहे है, और क्या करने जा रहे हैं? प्रेम के नाम पर हम सिर्फ सोच विचार, योजना, कोई संस्कार, बनावटी आचरण तक ही कल्पना कर सकते हैं। जिसका आचरण हमारे अनुकूल होता है, या किसी भय या स्वार्थ को हम प्रेम समझ लेते हैं; यह सब कल्पनाएं हैं, यह प्रेम नहीं है।


प्रेम के नाम पर हम किसी को अपना या पराया कहते हैं, एक तरह की नौटंकी खेलते रहते हैं या कुछ संवेदनाएं, भाव पैदा हो जाते हैं। कोई भी विचार, संबंध या जीवन के तल पर असत्य है। प्रेम क्या है उसका ना तो हमें कुछ पता है, और ना ही बुद्धि से उसका पता हो सकता है। प्रेम के क्षेत्र में विचार की कोई भूमिका नहीं है। ये जानकर अब आप प्रेम के लिए क्या करेंगे? जहां आप मिटने लगे, वहीं प्रेम जीवन में प्रवेश कर जाएगा।


हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह।

सूका काठ न जानई, कबहूँ बरसा मेंह।।


भावार्थ: पानी के स्नेह को हरा वृक्ष ही जानता है, सूखा काठ या पेड़ क्या जाने कि पानी कब बरसा? सहृदय ही प्रेम भाव को समझता है, निर्मम मन इस भावना को क्या जाने?


हरा पेड़ ही पानी का स्वाद जानता है, अपने में पानी सोख लेता है, जबकि सुखा वृक्ष पानी का स्वाद नहीं जान सकता है। इसी तरह बुद्धि केवल अनुमान लगा सकती है, प्रेम में डूब नहीं सकती है।


आठ पहर चौंसठ घड़ी मेरे और न कोय।

नैना माहीं तू बसै नींद को ठौर न होय।।


आठ पहर या चौंसठ घड़ी बस प्रेम ही होता है, अब नींद या प्रमाद की कोई जगह नहीं बची।

जहां संभव हो प्रेम का दीप धरिए, जो बुद्धि की भूमिका से मुक्त हो। वो क्या जीवन है जो मेरी भूमिका से मुक्त है। वास्तव में सब कुछ प्रेम से बना है, जहां भी अवसर मिले आप समाप्त हो जाइए, जागरण को अवसर दे दीजिए। आप कोई जवाब देना चाहते हैं, जवाब देने से पहले ये देख लें कि इस जवाब देने में मेरी भूमिका से मुक्त कर्म क्या है? होश में हर बात जीवंत हो जायेगी, यदि यह समझ, यह मोड़ जीवन में आ गया।


कबीर चन्दन के निडै नींव भी चन्दन होइ।

बूडा बंस बड़ाइता यों जिनी बूड़े कोइ।।


भावार्थ: कबीर कहते हैं कि यदि चंदन के वृक्ष के पास नीम का वृक्ष हो तो वह भी चंदन की खुशबू ले लेता है। लेकिन बांस अपनी लम्बाई या बड़प्पन के कारण डूबने से वंचित रह जाता है।


अगर ऐसे प्रेम का सानिध्य है जिसमें मैं की भूमिका नहीं है, तो विचारों और व्यवहार में भी प्रेम उतरना शुरू हो जाता है। खुद अपने मिटने की कीमिया में बिलकुल ईमानदारी से उतरें। बांस डूबता भी है पर थोड़ा सा बचा रहता है। आप क्या बचा सकते हैं, कुछ नहीं बचता, बल्कि सब कुछ पहले से छीना ही हुआ है। जो प्रेम करने वाली विधा है, जो प्रेम करने वाला है, बस वही छुट जाए। कबीर, मीरा, रमन महर्षि की गंध छूटी है आकाश में, वही हम तक भी पहुंच जाती है।


शुद्ध प्रेम का दीप जलाना क्या है? हम व्यवहार ना करें, हम खुद ही मिटने के लिए इस प्रश्न को उठा रहे हैं। सोच विचार एक सुखी रेत की तरह है, उसमें प्रेम का रस नहीं मिलेगा।


कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।

जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।।


अर्थ: शरीर उस पंछी के समान है जो सदा मन का साथ देता है। हमारा मन जैसी संगत पसंद करता है, हमें फल भी उसी के अनुसार मिलता है। कबीरदास जी यह भी समझाना चाहते हैं कि हमारी संगत हमारे मन का परिचय भी देती है।


नाले का पानी कोई नहीं पिता है, लेकिन जब वही पानी गंगा में मिल जाता है तो वह भी शुद्ध हो जाता है।

प्रेम बिना धीरज नहीं, बिरह बिना बैराग।

सतगुरु बिना मिटते नहीं, मन मनसा के दाग॥


प्रेम के साथ ही अनंत धैर्य भी साथ आ जाता है, और विरह वितराग को साथ लेकर के आता है। असंभव प्रश्न ही गुरु है, जो उस दाग को निकालता है जिसका नाम मैं है।


जब भी आप एक जगह वीणा के तार को छेड़ते हैं उससे पूरा तार झनझना उठता है। प्रेम के थोड़े से स्वाद से, उसका सारा एहसास एक साथ एक्टिव हो जाता है।


हम आप गुब्बारे की तरह नहीं हैं की अंदर बाहर कुछ भिन्न है। मनुष्य चेतना एक बहुत बड़ा प्रवाह है, एक मनुष्य का दरिया है। इसको तर्क या प्रमाण से मत ढूंढिए, नहीं तो बुद्धि में ही उलझ कर रह जायेंगे। क्रोध, भय या किसी भी भाव में निजी जैसा कुछ भी नहीं है। यदि सहारा लेना ही है तो यह देखिए कि किसका सहारा लिया जाए। सारे शुभ या अशुभ सहारे इस दरिया में उपलब्ध हैं। आप किसी वृत्ति का हिस्सा बने रह सकते हैं, या फिर उससे बाहर आ सकते हैं।


प्रेम में जो इसके पार गए हैं, उनके सारे सहारे मिल जायेंगे। प्रेम या प्रश्न ही गुरु है, जो हमेशा आपके पास है, आपका सहारा है। किसी अन्य गुरु से आप कब तक सहारा ले सकते हैं। प्रेम ही है जो अहम का समूल अंत कर सकता है। प्रेम का एक खांचा या प्रारूप तैयार करें, उसे समझें, और तुरंत उसे छोड़ भी दें, नहीं तो शाब्दिक या बौद्धिक समझ में उलझ जायेंगे। सारा काम अपने ही ऊपर करना है।


जो ये एक ही जानिया तो जानो सब जान।

जो यह एक ना जानिया तो सारा जान अनजान।।


एक इसको यानी प्रेम को जान लिया, तो मानो सब कुछ जान लिया, और अगर एक इसको ही नहीं जाना तो जैसे कुछ भी नहीं जाना।


नीम कैसे चंदन हो सकती है, बुद्धि एक वर्चुअल संस्था है जो जान नहीं सकती है, लेकिन फिर भी प्रेम व्यवहार में आ जाता है। जो आंकलन कर सकता है वो उसको जी नहीं सकता, लेकिन उस उपकरण का उपयोग प्रेम चाहे तो कर सकता है।


सुन्न मरै अजपा मरै, अनहद हू मरि जाए। राम सनेही ना मरै, कहै कबीर समुझाए॥

मैं अबला पियू पियू करूं, निर्गुण मेरा पीयू।


जब अपनी सीमा देख ली, तो सुन्न या शून्य पात्रता है उपलब्धि नहीं। कोई कीमिया भी सत्य नहीं है, जिसको अवसर दिया है वो ही सत्य है। नाव सत्य नहीं है पर उसके पार उतरना सत्य है, शून्य को भी मत पकड़िए।


मुक्ति, जागरण या प्रेम, तीनों एक ही बता हैं। जैसे आप जब घास उखाड़ते हैं तो उसमें अलग अलग तरीके अपना सकते हैं, पर अंत में एक ही बात होती है जमीन को घास से मुक्त करना। मौलिक बात एक ही है, मैं का संपूर्ण विसर्जन। पूरी ऊर्जा इसीमें झोंक दीजिए, अपने को जरा सा भी मत बचाइए। समझ को उतर जाने दीजिए, असाध्य प्रश्न ही गुरु है। किसी को छोड़ कर कहीं और नहीं जाना है, बस विचार की जहरीली गोंद को हटने देना है।


जीवन में प्रेम का दीप धरना क्या है?

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Ashu Shinghal

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