top of page
Image by NordWood Themes
Image by NordWood Themes

सदा सुहागिन

Writer: DharmrajDharmraj

बिरहिन ने उस दिन दीप नहीं बाले

मंदिर के गोपुर पर पीठ टेक

मुँह फेर ठाढ़ी रही

उसकी टेक ठाढ़ फेर आराध्य से

रूठ रूठ कहती थी कि

सुनो आराध्य

जीवन गोधूलि की पहली किरण कानों के ऊपर दस्तक दे चली है

पर मेरी सूनी माँग सूनी ही जा रही है


मेरी सुकोमल उँगलियों ने

किसी कलाई पर रक्षासूत्र बाँधने का कसाव जाना ही नहीं है

न मेरे सिर पर किसी के बूढ़े हाथ फिरे हैं

न ही मेरा आँचल

किसी नवजात शिशु को सींचने के लिए कभी भीगा है


मेरे चित्त ने कभी आशंका की उस तरह की गुदगुदी को जाना ही नहीं

जो चंचल वल्लभ की अप्रत्याशित छेड़छाड़ से जन्म लेती है


आराध्य के द्वार पर बिरहिन की वह टेक

ऐसी अडोल थी

उसकी उपस्थिति का वह आर्त कंपन ऐसा मर्मभेदी था कि

आकाश कँप गया


सहसा जैसे किसी भ्रम के विराट महल का

केंद्र स्तंभ अपनी छत से छिटक

पूरा धराशायी हो जाए

ऐसे ही बादलों का ऋतु विपरीत गर्जन उठा

एक हल्की बयार के झोंके ने

हरसिंगार के फूलों से आपूर

उसकी माँग भर दी

पुनः तेज बयार के झोंके ने उस पर झुके आम्रपल्लव से बलात्

उसकी कलाई कस दी


बादलों के फाहे

उसके घुंघराले केशों में फिरने लगे

हवा के झोंके से एक नन्हा गिलहरी का शिशु

वृक्ष की शाखा से सरक गया था

उसे देख उसका उमड़ कर आँचल भीग चला

बड़ी बड़ी हज़ार हज़ार बूँदे एक साथ उसके अंग अंग पर ऐसे बरस पड़ी

जैसे कोई अनंत आत्मीय वल्लभ अपनी प्रेयसी के देह वाद्य को

हज़ार हज़ार उँगलियों से साध चला हो


अपूर्व संगीत अपूर्व प्रेम अभय और अपूर्व आशीष से

थिरक उठी उस ललना की भाँवर

वर्षा और मिट्टी के मिलन से उमगी सोंधी गंध

बार बार फेर गई


आश्चर्य यह माँग भराई से ले सेज तक का मिलन तो

नित नित पल पल ही घटता चल रहा था

सदा सुहागिन होकर बिरहिन बूझती उस विभूति का

सदा सत्य ने वरण किया ही हुआ था

सदा वह प्रिय के संग सेज पर ही थी

यह साक्षात्कार उसके

जन्मों जन्मों के शोक को क्षण में धोकर

उसे निर्मल कर गया


देखो न!

दीप की बाती सहेजती

सदा सुहागिन की कोरों से ढुलके आँसू

पत्थर की चौखट पर टकरा छिटक गए हैं


धर्मराज

26/05/2024

Comentários


bottom of page