दुख की प्रकृति, के कुछ मुख्य अंश - By Ashwin
१) आप बाहर का दृश्य भी देख सकते हैं, और भीतर उस मैं को भी देख सकते हैं जो हमेशा बना रहता है। ये देखना है कि कहां से विजातीय गुण धर्म हमारे जीवन में प्रवेश कर गया है। जो विजातीय है हम उसकी ना तो निंदा कर रहे हैं, और ना ही उसका समर्थन कर रहे हैं।
दुख स्वतंत्र नहीं है, दुखी होने वाला दुख के साथ जुड़ा हुआ है। दुख के साथ साथ जो दुखी है उसको भी समझना होगा। दुख और दुखी में विभाजन है, और इसलिए अंतराल है। जीवन में जो कुछ भी घट रहा है हम उसके प्रति जागरूक हो रहे हैं, और उसके प्रति भी जागरूक हो रहे हैं जिसमें ये सारे अनुभव घटते हैं।
२) वो कौन है जो मैं का अवलोकन कर रहा है? यदि ये वही मैं है जो कुछ पाने के लिए अवलोकन कर रहा है, तो ये वोही प्रक्रिया होगी जिसमें हम बाहरी जगत में उलझे रहते हैं, केवल विषय वस्तु बदल जायेगी। पहले शायद कोई पद चाहते हैं, और अब कोई ऐसा समाधान चाहते हैं जिसमें दुख नहीं हो, जिसमें संबंधों में कलह ना हो। यदि किसी उद्देश्य से उस मैं को देखने लगें तो ये उसी मैं का पीछे के द्वार से पुनरागमान हो जायेगा। जागरण से जीवन में बहुत कुछ सुधर जाता है, लेकिन यदि यही उद्देश्य है तो मैं का जो बोध है उसका संपूर्ण अवलोकन नहीं हो पाता है।
क्या जब हम देखें की बेहोशी क्या है, क्या मैं बेहोश हूं, तो क्या ये मैं का संपूर्ण अवलोकन होगा? हमने पाया की इससे मैं की संपूर्ण संरचना का अवलोकन हो सकता है। इस प्रक्रिया में उतरने से एक मौन घटित होने लग सकता है, दुख की सतत धारा रुकने लग जाती है।
३) जब हम सुनते हैं तो हम सुनते नहीं हैं, ध्वनि के पीछे भाषा है, भाषा के पीछे आशय है, आशय के पीछे चित्त में कोई ख्याल उठता है कहने का, वो ख्याल हमें नहीं सुनाई देता। बोलते हैं तो वो भी यांत्रिक है, पता नहीं क्यों बोल रहे हैं, उसके प्रति सजग नहीं होते हैं। इस तरह हमारे जीवन में सुनने, कहने, देखने में एक गहरी बेहोशी है।
हम जो अन्वेषण करते हैं क्या वो तत्वत अन्वेषण है, या सिर्फ एक सोच विचार करते हैं। सोच विचार का उपयोग है, लेकिन इतना उपयोग नहीं है कि वो हमारी जीवन की धारा को बदल सके।
४) दुख है ये भी क्या हम सोच रहे हैं, कि ये हमारा सीधा बोध है कि हम बेहोश हैं? यदि ये सोच विचार है तो उससे हम विद्वान भले ही हो जाएं, पर जीवन में दुख बना ही रहेगा।
दुख वो नहीं की जिससे आप प्रेम करते हैं वो आपके हिसाब से नहीं चलता है। क्या मैं का बोध दुख है? क्या हम दुख की प्रक्रिया से तालमेल बिठा लेते हैं, क्या हम दुख के साथ जीने के लिए अपने को राजी कर लेते हैं? कोई व्यक्ति क्रोध में जलता है, लोभ है, मोह है और उसको अपने जीवन का अंग मानता है, लेकिन इस विष के लिए शरीर नहीं बना है।
५) हमें पता भी नहीं चलता है कि जीवन में संताप है, और इससे जीवन बहुत सारी चीजों से वंचित हो जाता है। जब किसी घटना के कारण वश थोड़ी देर के लिए मैं का बोध निलंबित होता है तो उसकी अमिट छाप हमारे अंदर पड़ जाती है। यदि ये लगातार चलने वाला मैं का बोध भंग हो जाए, तो क्षण क्षण जीवन में सृजनात्मकता होगी। हम जानते ही नहीं हैं कि हम कैसे जीवन से वंचित हो गए हैं। जब तक दुख की संरचना है तब तक ये केवल एक कल्पना है।
क्या हमें एहसास है कि दुख है, या हम केवल सोच रहे हैं? एहसास का अर्थ है जैसे आपने जेब में बिच्छू डाल लिया है, तब आप चैन से नहीं बैठ सकते हैं। ये एहसास कहीं केवल सोच के स्तर पर तो नहीं है? ये जो मैं की धारा बनी हुई है, यही दुख है।
Comments