स्वयं को देखने की कला, तीसरी बैठक, "दुख का अवलोकन", के कुछ मुख्य अंश
- By Ashwin
१) जो बाहर घट रहा है, उसके साथ ही साथ अपने अंदर भी झांकना है कि अंदर क्या घट रहा है, कि वो कौन है जिसे ये सारी चीजें अनुभव में आ रही हैं? मौन में कई बार ऐसा लगता है कि जैसे वहां कोई व्यक्तित्व है ही नहीं, सारे व्यक्तित्व अखंड मौन में जैसे कहीं खो गए।
हमें सजातीय को लाने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना है, केवल जो विजातीय हो गया है जीवन धारा में उसको समझना है, और उस विजातीय तत्व को समझने के साथ साथ उस विजातीयता का अंत है। विजातीयता के अंत के साथ साथ, सजातीयता सहज रूप से प्रकट होगा ही।
२) विचारों भावनाओं आदि के साथ साथ, मैं का बोध जो हमारे अंदर बना हुआ है, उसको समझने के लिए उसे यथावत देखना होगा। विचारों के साथ साथ, उस बोध को भी देखें जिसे हम मैं कहते हैं, और इनके मध्य जो अंतराल है, विभाजन है, उसके प्रति भी ठहरते हैं।
विचार, भाव, दुख, सुख आते जाते रहते हैं, लेकिन मैं जो हूं वो बना रहता हूं। इसका अवलोकन या परीक्षण करना है।
३) हमारे अंदर एक समझ काम करती है जो यह कहती है की मेरे अंदर जो दुख है उसका समाधान विचारों से या प्रयास से हो सकता है, जिसके कारण हमारे अंदर निरंतर विचार प्रक्रिया गतिमान रहती है। लेकिन ये स्पष्ट है कि सोच विचार से मेरे जीवन में अब तक दुख का समाधान नहीं हुआ है।
जिस समझ को मैंने खोज बीन कर निकाला है उसके प्रति भी मेरे अंदर जागरण नहीं है। पहले हम सोच विचार से चलते थे, अब पहली बार समझ के धरातल पर कदम रखा है। सोच विचार के अलावा हमें दुख के निवारण का कोई रास्ता पता ही नहीं है। विचार से कर्म होते थे, और वो कर्म नए विचारों को जन्म देते थे, अब तक यही क्रम चल रहा था। अब पहली बार एक ऐसी समझ पैदा हुई है जो विचार नहीं है, जो दर्शन है। विचार कहीं ले भी जाता है, हम वापस उसी धरातल पर आ जाते हैं, हम उससे डिग नहीं रहे हैं। हम सोच विचार में दुख का निवारण ढूंढ रहे थे, इसलिए उनमें बह रहे थे।
४) हम सोच विचार में अब भी बह सकते हैं, लेकिन जैसे ही थोड़ी सी जागरूकता आती है, तो हम ये ठीक से समझ सकते हैं कि सोच विचार से कोई समाधान होने वाला नहीं है। इस पुष्ठ समझ से विचारों की अविरल धारा में एक दरार आ जाती है। जैसे दीवार में कोई दरार आने से पहली बार बंद कमरे के बाहर की किरण दिखाई देने लगी, ताजी हवा प्रवेश कर गई। दरार दीवार का हिस्सा नहीं है, उसमें से पूरा रास्ता बन जायेगा।
क्या जो ये खालीपन है, क्या ये सोच विचार की प्रक्रिया के द्वारा आया है? ये जो दरार आई है खालीपन की, वो मेरे किसी प्रयास के नहीं आई है। खोदते हम मिट्टी हैं और निकलता पानी है। यदि काम हम सोच विचार की प्रक्रिया के प्रति जागरण का करते हैं, और कोई सोच विचार से पार की चीज हमारे जीवन में घटित होनी शुरू हो जाती है।
५) किसी गुरु, शास्त्र, विधि, परिस्थिति, परोक्ष, अपरोक्ष, विचार, विचारक, अपने या दूसरे के सहारे के बिना, क्या हम ऐसे जीवन का अन्वेषण कर रहे हैं जो निर्भरता से ही मुक्त है? जो ना पर निर्भर है, ना आत्म निर्भर है और ना परस्पर निर्भर है। ऐसे जीवन का हम अन्वेषण कर रहे हैं जो अपनी ताजगी में, सृजन्मातकता में, जीवंतता में सहज रूप से प्रवाहित हैं। जैसे ही हम किसी का सहारा लेते हैं, वो सहज जीवन का जो स्रोत है वो बंद हो जाता है।
कागज में लिखने से बेहतर है कि वो जागरण हमारे जीवन में बह जाए। एक बार यह कला हमने जीवन में सीख ली, की जो है उसे यथावत देखने और ठहरने की कला, इसको करके देख लिया फिर इसको हमारे जीवन से कोई मिटा नहीं सकता है। जैसे आप जागरण में स्थित होंगे तो वही चीज जो आपके लिए ठोकर का काम करती थी, वही सीढ़ी बन जायेगी।
६) सिनेमा, वीडियो आदि जिस चीज के लिए देख रहे हो, उसका समाधान उससे नहीं होगा। इससे अकेलेपन का बोध और बड़ेगा, जिनके पीछे हम भागते हैं वो चीजें और भी ओछी, सतही लगने लगेंगी। जितना आप जागेंगे उतना ही पलट पलट कर अपनी ओर आयेंगे। वही दुख की प्रक्रिया जो अवरोध थी, वही जीवन को भिन्न आयाम पर ले जाने में सहायक होगी। यही अवलोकन आपको निर्भरता से मुक्त जीवन की ओर सहज ही ले जायेगा।
भय की निवृति के लिए आप संबंध जोड़ते हैं, लेकिन इससे अपेक्षाएं आयेंगी, शोषण आयेगा। किसी अन्य की मदद से मेरे जीवन के दुख का समाधान नहीं हो सकता है, इस दुख की धारा को मुझे ही तोड़ना होगा। जब आप कहीं पहुंचना चाहते हैं, कहीं से हटना चाहते हैं, इसके लिए आत्म निर्भर होना चाहते हैं, वो भी उतना ही हानिकारक है। जो आप सुनते हैं, उस पर सोचना नहीं है, आपको उसे स्पष्ट घटिक होते देखना है।
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