"निर्भरता का अवलोकन", के कुछ मुख्य अंश - By Ashwin
१) क्या कोई ऐसा जीवन विद्यमान है जो कोई निर्भरता जानता ही नहीं है? अपनी वीणा को विसर्जित कर देने के बाद, अपने अंदर एक बिल्कुल भिन्न तरह की वीणा अकारण, अनायास, बिना किसी बजाने वाले के बज रही है। इस वीणा के बजाने में कोई व्यक्ति नहीं है, अब तक के हुए कोई गुरु नहीं हैं, ना अब तक का सीखा हुआ कुछ है। यद्दपि रोम रोम में उनके प्रति कृतज्ञता है, जिसने सकारात्मक या नकारात्मक रूप से शिक्षित किया है। कृतज्ञता है, पर निर्भरता लेश मात्र भी नहीं है।
वह वीणा कैसे बजती है जिसमें कोई बजाने वाला नहीं होता है, जिसमें मैं की कोई भूमिका नहीं होती है? संदेश वाहक को आपकी उपस्थिति या अनुपस्थिति से कुछ फरक नहीं पड़ता है, यदि आपकी वीणा उनकी वीणा से जुड़ी है, ये आपकी मौज है। संदेश वाहक को गुरु ना समझ लें, ना अपनी अपेक्षाओं को पूरा करने का कोई माध्यम।
२) हम दो छवियों के बीच में होने वाले व्यवहार को हम संबंध कहते हैं, जो कई तरह के दुख को जन्म देता है। क्या कोई ऐसा जीवन है जिसमें छवियों का लेश मात्र भी हस्तक्षेप ना होता हो? छवि जहां बनती हैं वहां निश्चित रूप से कोई छवि बनाने वाला भी होता है। जैसे छवियां मजबूत होती हैं और उनके अनुसार कुछ होने लगता है, तो हम अपने आप को बहुत सशक्त समझने लगते हैं, मैं का भाव और मजबूत हो जाता है।
एक और समझ काम करती है कि मैं का एक सतत बोध सभी तरह की छवियों से भिन्न है। ध्यान से देखने से ये पता चलता है कि मैं और मेरी छवि ये दो चीजें नहीं हैं। ये केवल एक भ्रम है कि मैं अपनी छवि से भिन्न हूं, या मैं अपनी छवि बदल सकता हूं, उसको मिटा सकता हूं। वास्तविकता यही है कि मैं मेरी ही छवि हूं, चाहे वो मैं अपने या किसी अन्य के संबंध में बनाऊं।
३) मेरे अंदर से यदि सारी छवियों का अंत हो जाए तो मैं कहां बचता हूं? इस तथ्य का अभी पता लगाइए। कुछ भी नहीं होना भी एक छवि ही है। सभी छवियां आपने अपनी सुविधा के लिए गढ़ी हैं। मेरे अंदर आपकी एक छवि है, मेरे अंदर मेरी भी एक छवि है, तदानुसार मैं आपसे व्यवहार कर पाता हूं। हमारे अंदर एक बात गहरे रूप से बैठी हुई है कि बिना किसी छवि के जीवन अपने आप सहज रूप से नहीं चल सकता है।
सवाल ये उठता है कि किसको इन छवियों का खेल समझ में आयेगा? यदि हम पूछेंगे कैसे तो फिर एक नई छवि बन जायेगी। दृष्टा, साक्षी, अनुभव करने वाला आदि धारणाएं मुख्यता इसी कारण पैदा हुई हैं। जिन्होंने बताया है वो करुणा वश बताया है, क्योंकि हम बिना सहारा लिए आगे बढ़ ही नहीं सकते हैं। ऐसा नहीं है कि कोई मूल छवि है जिसको पकड़ लेने से बाकी की छवियां छूट जायेंगी।
४) वास्तव में जब मैं छवियों को देखता हूं, तो ये प्रश्न करता हूं कि ये छवियां किसे हैं? कौन केंद्र इन छवियों को गढ़े हुए है? वो नदी को देखने पर, नदी शब्द जो आया और जिसको वो शब्द आया है, वो एक ही चीज हैं। इनमें कोई अंतराल नहीं है। जैसे ही देखते हैं कि किसे ये छवि घट रही है, तो तत्क्षण सारी प्रक्रिया ढह जाती है, केवल एक सवाल बना रहता है। क्रिया हो रही है पर कोई योजना नहीं है। मुझे जागरण बनाए रखना है, ये भी कोई प्रयास नहीं हो रहा है।
जागरूकता चली जाती है तो कोई बात नहीं है, लेकिन जैसे ही अंदर कोई अव्यवस्था होती है तो पता चल जाता है क्योंकि अब संवेदनशीलता भी बढ़ रही है। केवल पूर्ण क्रिया है और सब कुछ समाप्त, वहां कोई निरंतरता नहीं है। यह सौंदर्य है अस्तित्व का कि जो अनोखा फूल हमारे लिए तैयार किया हुआ है उसे दूसरा कोई छेड़ भी नहीं सकता है, हर फूल अपने में अनूठा है। कबीर थोड़ी देर हमारे साथ चल सकते हैं, पर वो हमारी वीणा बजा नहीं सकते हैं, वो इस तरह कभी बजी ही नहीं है अस्तित्व में इससे पहले। यहां कोई भी व्यक्ति एक दूसरे का उद्धारक नहीं है।
५) मौन है, और जिसे मौन का बोध हो रहा है, उसके प्रति भी जागरण है। इनके बीच एक अंतराल या विभाजन है, जिस विभाजन के कारण हमें मौन का बोध हो रहा है, उस विभाजन का भी और जो भी कुछ पता चल रहा है उसके प्रति भी जागरण है।
कुछ नहीं होना भी, कुछ होने के विपरीत एक बोध है। इस बोध को भी हम त्यागने के लिए तैयार हैं। जब कुछ होने की या नहीं होने की, दोनों छवियां नहीं हैं, तो हम कहां बचते हैं? देखने मात्र से मैं यदि गलने लगा, तो मेरी कोई स्वयंभू सत्ता है ही नहीं। मैं की सत्ता केवल सापेक्षिक है, जो दुख ही है, तो वो सत्ता जितनी जल्दी चली जाए उतना अच्छा है। जीवन एक तरफ से सनातन है, और साथ ही वो अकाल भी है।
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